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बच्चों के रोचक नाटक

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3555
आईएसबीएन :81-7182-359-9

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विद्यालय में बच्चों द्वारा दिये गये रोचक नाटकों का संकलन

Bachchon Ke Rochak Natak a hindi book by Girirajsharan Agarwal - बच्चों के रोचक नाटक -गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विद्यालयों में प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इन अवसरों पर बच्चे नाटकों का भी अभिनय करते हैं। तब बच्चों की भाषा में लिखे गए सरल नाटकों की खोज होती है।
ये रोचक नाटक विशेष रूप से विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को ध्यान में रखकर लिखे गये हैं। ये सरल भी हैं और मनोरंजक भी। मंच पर इनका अभिनय किया जा सके इसी उद्देश्य से प्रस्तुत हैं बच्चों के ये रोचक नाटक।

साधु की सीख

पात्र परिचय

प्रधानाचार्य
मुख्य अतिथि
संचालक
नवनीत, सौरभ सत्यव्रत
माँ
साधु
कुछ छात्र


(मंच पर एक समारोह का दृश्य उभरता है। जूनियर हाईस्कूल का परीक्षाफल आने पर विद्यालय के उन बच्चों को पुरस्कृत किया जा रहा है, जो विशेष स्थान लेकर परीक्षा उत्तीर्ण हुए हैं। हॉल बच्चों और उनके अभिभावकों से खचाखच भरा है। पीछे माँ सरस्वती का बड़ा-सा चित्र टँगा हुआ है। उस पर फूलों की माला डाली हुई है। मुख्य अध्यापक व मुख्य अतिथि मंच पर आते हैं।)

मुख्य अतिथि: बच्चो, आज वह दिन है, जब छात्रों को अपनी मेहनत का फल देखने और चखने का अवसर मिलता है। यह दिन उन बच्चों के लिए उत्साहवर्धक है, जिन्होंने पढ़ाई में साल-भर मेहनत की और परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। साथ ही यह दिन उन बच्चों के लिए शिक्षाप्रद भी है, जो पूरे साल हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे और अनुतीर्ण हो गए। बच्चो, मानव-जीवन ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। उससे भी बड़ा वरदान ज्ञान का वह महासगर है, जो ईश्वर ने केवल आदमी के लिए बनाया है। यह अपनी-अपनी क्षमता और मेहनत की बात है कि कौन इस महासागर से ज्ञान के मोती निकालकर लाता है और कौन तट पर प्यासा बैठा रहता है।

(बच्चों और अभिभावकों के बीच से तालियां बजने की आवाज आती है। समारोह को संचालित करने वाला बच्चा माइक पर आता है।)

संचालक : आदरणीय अतिथिगण व भाइयो। अब मैं विद्यालय के प्रधानाचार्य से निवेदन कर रहा हूँ कि वे आएँ और परीक्षा में सम्मान-सहित उत्तीर्ण छात्रों को पुरस्कार वितरित करें।
(एक बार फिर तालियाँ बजती हैं।)
प्रधानाचार्य : बच्चो ! मुझे गर्व है कि इस वर्ष हमारे विद्यालय ने पूरे जनपद में प्रथम स्थान प्राप्त किया। विद्यालय का वार्षिक परीक्षाफल पिछले साल की अपेक्षा सराहनीय रहा, लेकिन इस वर्ष कक्षा 10 के छात्र सौरभ शर्मा ने जिले-भर में प्रथम स्थान प्राप्त कर न केवल अपने विद्यालय का वरन् जनपद का नाम रोशन किया है। मैं सौरभ को बधाई देता हूँ और उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। वह आए और विद्यालय की ओर से पुरस्कार ग्रहण करे।
(सौरभ मंच पर आता है और मुख्य अतिथि के हाथों से एक सुंदर दीवार घडी़ इनाम में प्राप्त करता है। हाल तालियों से गूँज उठता है।)
प्रधानाचार्य : अब मैं इस विद्यालय के दूसरे छात्र नवनीत रस्तौगी को आमंत्रित कर रहा हूँ। वह आए और अपना पुरस्कार प्राप्त करे। नवनीत रस्तौगी ने इस वर्ष पूरे विद्यालय में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर कीर्तिमान स्थापित किया है। वह भी कक्षा 12 का विद्यार्थी है।
(तालियाँ बजती हैं। नवनीत मंच पर आता है और अपना पुरस्कार (टेबिल लैंप) लेकर वापस आ जाता है। हाल तालियों से गूँज जाता है।)

(दृश्य परिवर्तन। मंच पर तीन छात्र दिखाई देते हैं, इनमें से एक सौरभ है, दूसरा नवनीत है और तीसरा सत्यव्रत है। सत्यव्रत बहुत उदास और निराश-सा दिखाई देता है।)

नवनीत : सत्यव्रत, अगर तुम भी पढ़ाई पर ध्यान देते और मेहनत करते तो तुम्हें इस तरह लज्जित न होना पड़ता।
सत्यव्रत : तुम ठीक कहते हो नवनीत। पर मेरा मन पुस्तकों में नहीं लगता। जो पढ़ता हूँ, वह याद ही नहीं हो पाता है।
सौरभ : जब मन इधर-उधर भटकता है, ध्यान किसी एक चीज पर केंद्रित नहीं होता, तब ऐसा ही होता है, सत्यव्रत।
सत्यव्रत : पर आज मैंने यह देख लिया कि मेहनत करने वाले बच्चों का कितना सम्मान होता है। उन्हें कितना महत्त्व दिया जाता है, विद्यालय में भी और घर पर भी।
नवीनत : इसके बाद भी तुम मन लगाकर पढ़ने की कोशिश नहीं करते सत्यव्रत। देखो, नहीं पढ़ोगे तो बड़े आदमी नहीं बन पाओगे।

सत्यव्रत : मैं यह बात अच्छी तरह समझता हूँ। प्रधानाचार्य जी ने तुम दोनों की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा। तुम लोगों को जब इस समय इतना सम्मान मिल रहा है, तो उस समय कितना सम्मान मिलेगा, जब तुम पढ़-लिखकर सचमुच में बड़े विद्वान बन जाओगे।
सौरभ : इस बात से शिक्षा लो। इस वर्ष जी लगाकर मेहनत करो ताकि तुम भी वही सम्मान पा सको।
नवनीत : हमें दुःख है कि तुम उत्तीर्ण नहीं हो सके। हम लोगों से तुम्हारा साथ छूट रहा है। पर हमारी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं। तुम भी पढ़-लिखकर बड़े आदमी बनो, बहुत बड़े विद्वान बनो और सम्मान प्राप्त करो।
सौरभ : आज से प्रण कर लो कि सारी बातें छोड़कर पढ़ाई में ध्यान लगाओगे। यह बात गाँठ बाँध लो कि जीवन में शिक्षा ही तुम्हारे काम आएगी, कोई और चीज काम आने वाली नहीं है।
सत्यव्रत : (वचन देते हुए) मैं संकल्प करता हूँ कि एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनूँगा, चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़े ?
सौरभ व नवनीत : (बारी-बारी से) धन्यवाद मित्र। हम तुम्हें बधाई देते हैं। आदमी यदि संकल्प करे तो वह क्या नहीं बन सकता ?

(दृश्य बदलता है। मंच फिर खाली है। कुछ क्षण बीत जाते हैं। दृश्य में सौरभ, नवनीत, सत्यव्रत तथा अन्य बच्चे उभरते हैं।)

नवनीत : क्यों सत्यव्रत, इतने दिनों से कहाँ थे ? बहुत दिनों बाद मिले हो। शायद पढ़ाई-लिखाई के कारण समय नहीं मिला होगा।
सौरभ : (छेड़ते हुए) अब तो समय मिल भी गया है। आगे तो तब मिलेगा, जब यह बहुत बड़ा विद्वान बन चुका होगा। क्यों भाई सत्य !
सत्यव्रत : मैं उलझ गया हूँ भाई। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूँ ?
एक छात्र : समझ में क्यों नहीं आता है ? समझ में आता है। इधर-उधर समय गँवाना छोड़ो। पढ़ाई में मन लगाओ। सब ठीक हो जाएगा ?
सौरभ : (छात्र को संबोधित करते हुए) क्या अब भी वही पुराना हाल है सत्यव्रत का ? अब तो ऐसा नहीं होना चाहिए।
छात्र : भैया, सत्यव्रत तो इस छमाही में भी फेल हो गया।
नवनीत : बात यह है दोस्तो, पढ़ने लिखने में जिस कड़ी मेहनत की जरूरत होती है, उतनी मेहनत मुझसे नहीं होती। विद्वान बनने का कोई आसान-सा तरीका बताओ।

सौरभ : पढ़ाई ही क्या दुनिया का चाहे कोई भी काम हो, मेहनत तो उसमें करनी ही पड़ती है। बिना मेहनत के कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता।
सत्यव्रत : ऐसा भी क्या कि साल में जूँ की चाल चलते-चलते एक-एक कक्षा का द्वार फलाँगते जाओ, और जब अधेड़ उम्र को पहुँच जाओ, तब कहीं जाकर मंजिल दिखाई दे।
नवनीत : लेकिन सत्यव्रत, कोई भी फसल हो, बोने के तुरंत बाद नहीं काटी जा सकती। उसके लिए मेहनत और प्रतीक्षा दोनों की आवश्यकता होती है।
सत्यव्रत : तुम लोग जो भी सोचो, पर मैं तो शार्टकट से शिक्षा पाना चाहता हूँ। शार्टकट से विद्वान बनना चाहता हूँ। तिल-तिल करके रेंगने के लिए तैयार नहीं हूँ मैं। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए।
छात्र : ऐसी कौन-सी तरकीब है, तुम्हारे पास ? जादू के जरिए अलाउद्दीन को धन तो मिल गया था, विद्या नहीं मिली थी।
सत्यव्रत : मुझे मिलेगी। मुझे अवश्य मिलेगी।
छात्र : लेकिन यह तो बताओ, यह होगा कैसे ?

सत्यव्रत : मैंने तय किया है कि घोर तपस्या करूँगा। सरस्वती की साधना में दिन-रात एक कर दूँगा। मुझे विश्वास है कि सरस्वती माँ प्रसन्न होकर एक-न-एक दिन सारा ज्ञान मेरे दिमाग में भर देंगी।
सौरभ : ऐसा नहीं हुआ करता है, सत्यव्रत।
सत्यव्रत : हुआ क्यों नहीं करता ? ज्ञान की देवी माँ सरस्वती के लिए कौन-सा काम मुश्किल है ?
छात्र : मुश्किल हो या न हो, पर सिद्धांत से अलग हटकर कोई भी शक्ति आदमी की सहायता नहीं करती है।
सत्यव्रत : तुम्हें विश्वास हो या न हो, मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा ही होगा।
(मंच कुछ देर के लिए पुनः खाली हो जाता है। पर्दा उठता है तो सत्यव्रत एक कोने में विधिवत आसन लगाए आँखें मूँदे हुए माँ सरस्वती की तपस्या में लीन है। उसकी माँ धीरे-धीरे चलती हुई खाने की थाली लिए उसके निकट आती है।)
माँ : सत्यव्रत बेटे ! किस मूर्खता में पड़ गया तू ? ऐसे विद्वान नहीं बना जाता है, तपस्या छोड़, खाना खा ले।
(सत्यव्रत मौन बैठा रहता है।)

माँ : (सत्यव्रत का कंधा हिलाते हुए) आज एक सप्ताह बीत गया, अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया। सूखकर काँटा हो गया है। बस अब समाप्त कर।
सत्यव्रत : (आँखें मूँदे हुए) मेरी तपस्या भंग मत कर माँ। यहाँ से जा।
माँ : तेरे पिता होते तो क्या तू ऐसा कर सकता था ? मुझे असहाय देखकर मनमानी कर रहा है। ऐसे किसी का कोई सिद्धि नहीं मिलती है, पगले !
(सत्यव्रत उसी तरह मौन बना रहता है।)
माँ : अच्छा चल, मैं तुझसे पढ़ाई के लिए भी नहीं कहती। कुछ और काम, जो जी चाहे कर लेना ! इस काम से उठ। खाना खा। क्यों अपनी जान के पीछे पड़ गया है, बेटे ?
सत्यव्रत : (आँख मूँदे हुए) नहीं-नहीं-नहीं !

(माँ निराश होकर चली जाती है। रात गहरी हो गई है। कहीं कोई आवाज नहीं है। मंच पर प्रकाश बहुत हलका है, जैसे रात में होता है। अचानक छन्न-छन्न की आवाज होती है। आवाज पर सत्यव्रत आँखें खोलकर देखता है। सरस्वती प्रकट होती हैं।)
सत्यव्रत : (आँखें खोलते हुए) कौन हो तुम देवी !
सरस्वती : ज्ञान की देवी सरस्वती। बोलो, तुमने मुझे क्यों याद किया है ?
सत्यव्रत : (उठकर सरस्वती के चरणों में गिर जाता है।) मेरी मनोकामना पूरी करो माँ। मेरी मनोकामना पूरी करो माँ।
सरस्वती : बोलो, क्या चाहते हो ?
सत्यव्रत : मुझे संसार का सबसे बड़ा विद्वान बनने का गौरव प्रदान करो माँ।
सरस्वती : (पीठ थपकते हुए) अच्छा-अच्छा ! इसके लिए ही इतनी घोर तपस्या की है तुमने ? चिंता न करो पुत्र, मैं तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य तक पहुँचाने का प्रयास करूँगी।

सत्यव्रत : (फिर माँ के चरणों में गिर जाता है।) मुझे वरदान दो माँ !
सरस्वती : (समझाते हुए) इस बस्ती के बाद जो वनक्षेत्र है, तुम वहाँ चले जाओ। वहाँ तुम्हें ऋषि चिंतामणि मिलेंगे। वही तुम्हारी सहायता करेंगे और तुम्हें विद्वान बनने का मार्ग बताएँगे।
(माँ सरस्वती अदृश्य हो जाती हैं। भोर का समय है। सत्यव्रत प्रसन्न मुद्रा में जंगल की ओर जाता हुआ दिखाई देता है। जंगल में ऋषि चिंतामणि एक सूखे वृक्ष के नीचे बैठे हैं और घड़े में से पानी लेकर एक एक चुल्लू पानी पेड़ की जड़ों में डालते जाते हैं।)

सत्यव्रत : (निकट पहुँचकर पाँव छूता है और चरणों में बैठ जाता है।) बहुत दूर से आया हूँ। महाराज ।
ऋषि : देवी सरस्वती ने भेजा है ?
सत्यव्रत : हाँ महाराज। पर आप इस सूखे वृक्ष के नीचे बैठकर क्या कर रहे हैं ?
ऋषि : एक-एक चुल्लू पानी दे रहा हूँ, इस पेड़ की जड़ में।
(ऋषि घड़े से पानी लेकर पेड़ की जड़ में डालता जाता है।)
सत्यव्रत : कितने दिन हो गए महाराज, आपको यह काम करते हुए ?
ऋषि : पाँच वर्ष हो गए हैं, बेटे !

सत्यव्रत : पर वृक्ष तो अब तक हरा नहीं हुआ।
ऋषि : नहीं हुआ, और शायद होगा भी नहीं।
सत्यव्रत : क्यों महाराज ? ऐसा क्यों है ?
ऋषि : साधना से प्रकृति अपना नियम नहीं बदलती है, बेटे ?
सत्यव्रत : फिर इस साधना का लाभ ही क्या है, महाराज ?
ऋषि : वही, जो तुम्हारी साधना का होगा। तुमने विद्वान बनने के लिए तपस्या की लेकिन विद्वान नहीं बन सके। विद्वान बनने के लिए जिस तपस्या की आवश्यकता है, वह तुमने नहीं की है और सूखा पेड़ काटकर नया वृक्ष लगाने का जो परिश्रम है, वह मैंने नहीं किया। इसलिए न तो तुम्हें विद्या आई और न हरे वृक्ष की छाया मुझे मिली।
सत्यव्रत : मैं समझ गया महाराज, मैं समझ गया ! मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मैं सही रास्ते पर चल सकूँ।
(प्रसन्न मुद्रा में घर की ओर चल देता है।)




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